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नयी तकनीक और परम्परागत सोच

6/20/2018

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सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, मगर आग जलनी चाहिए।
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इन पंक्तियों के माध्यम से मैं बस यही कहना चाहता हुं कि मैं यहाँ कोई मुहिम छेड़ने नहीं आया हुं, मैं बस बदलाव को लेकर कुछ विचार रखना चाहता हुं जो मैंने RoadBounce Journey के दौरान अनुभव किया और जहां तक मैं महसूस करता हुं परम्परागत सोच हीं है जो हमारे जैसे नयी तकनीक के आड़े आती है, पर बदलाव के लिये जरूरी है लोगों का जागना और समस्याओं को समझना।

​ समस्यायें और अवरोध

जब भी कोई नयी तकनीक आती है तो ज्यादातर दो तरह की प्रतिक्रियायें होती है “अरे यार क्या टेक्नोलॉजी आयी है,सही है भाई” और दूसरी “क्या यार फिर से एक नयी टेक्नोलॉजी, अब इसको भी झेलना पड़ेगा” इस तरह से दो सोच उभर के सामने आती है एक आशावादी और एक विरोधाभाषी। आशावादी नयी चीज़ों के लिये उत्साहित रहते हैं जब की विरोधाभाषीयों को परम्परागत चीज़ों पर ज्यादा भरोसा होता है।
 CalestousJuma ने अपनी किताब Innovation and Its Enemy में लिखा है कि लोग नयी तकनीक का विरोध इसलिये नहीं करते हैं क्योंकि वे नये हैं या उनको इसकी जानकारी नही हैं। वे नुकसान का विरोध करते हैं वो नुकसान आय, पहचान, समझ या शक्ति के रूप में हो सकती है और यही अवधारणा नयी तकनीक के लिये रुकावट बन जाती है। दूसरी बात ये कि जब भी नयी तकनीक आती है तो उसे एक नये सिरे से सिखने की समझने की जरूरत होती है और हम भारतीयों की बात करें तो हम आसानी से किसी चिज़ को अपनाते नहीं है और अगर अपना लेते है तो छोड़ते नहीं है,क्या करें लगाव जो हो जाता है।
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हम भारतीय और नयी तकनीक

 ​जब भी कुछ नया बदलाव आता है तो हमें लगता है कि आखिर ये क्यों? जो चल रहा था वो बेहतर था बदलाव की जरूरत नहीं थी पर जब उसी प्रकल्प को नयी विचारधारा वाले आशावादी लोग अपनाना शुरु कर देते है तो बाकी लोग भी उसे अपनाहीं लेते है। उदाहरण के तौर भारत में ट्रैक्टर को आने में काफी समय लग गया क्योंकि हमें बैलों पर ज्यादा भरोसा था उनसे लगाव जो हो गया था, और हम आज मोबाइल फोन को ही ले सकते है आज इसने स्मार्ट फोन का रूप ले लिया है इसने रेडिओ, टीवी,कंप्यूटर,अखबार, बैंक इत्यादि सभी को जेब में लाकर रख दिया है। आशावादी लोग नये वर्जन, नये मॉडल का इंतजार करते है तो परम्परागत सोच वाले आज भी रेडिओ को याद करते रहते है, अखबार की कागजी खुशबू को नहीं भुला पाते,ऑफिस के फाइलों से लदी टेबलोंको, टीवी के एंटिनो को, बैंक की कतारों को मिस करते रहते हैं। और एक तो तकरीबन 30-40% लोग ऑनलाइन शौपिंग करते है उसमें से सिर्फ 20‌-30% लोग ही ऑनलाइन पेमेंट करते है बाकी सब कैश औन डेलिवरी, इतना भरोसा है हमें तकनीक पर। जितने पैसे भिम ऐप बनाने में नहीं लगे उससे ज्यादा उसके प्रचार प्रसार में लग गये, मित्रों भिमऐप, भाइयों बहनों भिम ऐप पर पता नहीं ये कितने कानों तक पहुची है और कितने स्मार्ट फोन तक। हमारे यहां गूगल तेज़, पेटीएम जैसे ऐप को पैसे ट्रांसफर से ज्यादा कैशबैक और कुपन के लिये इस्तेमाल किया जाता है। 
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परम्परागत तकनीक और नयी तकनीक के टकराव की साक्षी RoadBounce

​मेरे हिसाब हमारे लोग नयी तकनीक को पुरी तरह से स्वीकार करने के लिये इसलिये तैयार नहीं है,क्योंकि उन्हें उपलब्ध परम्परागत तकनीक पर ज्यादा भरोसा हैं।ऐसा है,जब हमने पहली बार RoadBounce एप से पुरे महाराष्ट्र में सर्वेक्षण शुरु किया तो निर्माण एवं बांध काम विभाग के काफी कर्मचारियों का यही प्रश्न था कि ये तकनीक कब आयी ये तो सिर्फ एक मोबाइल एप है आप इससे इतना कुछ कैसे कर सकते है?पहले वाली मशीनों में ऐसा था वैसा था, ये लगा था वो लगा था।फिर मेरे दिमाग में ये संदेह आया के शायद इन्हें ये अनुमान नहीं है कि एक मोबाइल एप आजकल क्या क्या कर रहा है या फिर इसमें इन्हें वैसी कोई ताम झाम नहीं दिखी जो परम्परागत मशीनों में रहती है जो इन्हें आकर्षित करती है। ये दो बातें तो थी ही पर जो सबसे अचंभित करने वाली बात थी वो ये थी की इन लोगों को ऐसे सर्वेक्षण की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि ये भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देता बल्कि उसे रोकने में मदद करता है जो ज्यादातर लोग नहीं चाहते। पुरानी जो भी वैकल्पिक पद्धतियां है उसमें ये संभावना है कि उसके संग्रहित डाटा के साथ छेड़छाड़ किया जा सके पर हमारी इस तकनीक में शायद वो संभावना नहीं है शायद ये भी कारण हो सकता है नापसंदगी का। 
पर कुछ ऐसे भी पदाधिकारी मिले जिन्हें ये काफी हद तक पसंद आया और उन्होंने इसे सराहा भी, हम ने पुरे महाराष्ट्र में तकरीबन 40000+ कि.मी. के रास्तों का सर्वे काफी कम समय में किया और जितने कम दरों में काम किया वो भी काफी आश्चर्यचकित करने वाला था कुछ लोगों के लिये, तो कुछ लोगों का ये भी कहना था कि ये तो सिर्फ मोबाइल एप है इसमें क्या खर्च है? पर शायद इसके पिछे लगे वर्षों की मेहनत और इसके प हर समय सर्वर पर काम कर रहे 30-40 लोगों की मेहनत का उन्हें अंदाज़ा नहीं है। और हो भी कैसे मोबाइल फोन इतना सस्ता है इंटरनेट और कौल दरें इतनी सस्ती है फिर ये क्यों नहीं, हम भारतीय हैं हमें हर चीज़ सस्ती चाहिये और ताम झाम भी तगड़ी चाहिए।

क्या हैं संभावनायें? 

​खैर, हम उत्साहित इस बात से है कि हमारी जो टेक्नोलॉजी है वो अपने आप में युनिक है इसके द्वारा कि गयी सारी आकलन पूर्णतः: सटिक और सरल है। हां, हम भारतीय थोड़ा वक़्त लेते है अपनाने में पर अपना हीं लेते हैं धीरे-धीरे। मंत्र,यन्त्र और तंत्र पर निर्भर रहने वाला भारत आज सूत्र,मशीन और तकनीक को बहुत शीघ्र पकड़ रहा है और आज सरकार भी डिजिटलाइजेसन के पक्ष में है तथा संभवतः आने वाले समय में लोग इस तरह की टेक्नोलॉजी की महत्ता को समझेंगे और बढ चढ कर इसे अपनायेंगे। 
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